pathgyan.com पर आप लोगों का स्वागत है,भगवान द्वत्तात्रेय का अवतार के बारे में जानेंगे।
भगवान द्वत्तात्रेय का अवतार कथा
भगवान दत्तात्रेय भगवान् विष्णु के अवतार माने जाते हैं | कथा है कि मनु की पुत्री देवहुति को महर्षि कर्दम को भेंट की थी। इनके नौ पुत्रियाँ हुईं तथा अंत में एक पुत्र को जन्म दिया जिनका नाम ‘कपिल’ था जिन्होंने अपनी माता देवहुति को सांख्य शास्त्र का उपदेश दिया था।
यह भगवान के अवतार माने जाते हैं | कर्दम ऋषि ने अपनी एक कन्या अनुसूया को अत्रि ऋषि को दिया था।
अत्रि व अनुसूया ने तीन पुत्रों को जन्म दिया। अनुसूया सत्तियों में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती थी | एक बार ब्रह्मा, विष्णु और महेश इसकी परीक्षा लेने महर्षि अत्रि के आश्रम में पहुँचे। ये साधु वेश में थे। अनुसूया जब पाद्य, अर्घ्धय और आचमनीय लेकर आई तो इन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया और कहा कि आप निर्वस्त्र होकर आवें तभी इसे स्वीकार किया जाएगा।
सती इनके कपट को समझ गई और उसने सतितत्व बल का प्रयोग करके बोला तीनों छ:-छ: माह के बच्चे -हो जाएं। सती के प्रभाव से ये तीनों छ:-छ: माह के बच्चे हो गए। फिर उस सती ने निर्वस्त्र होकर तीनों को अपना स्तनपान कराया। फिर तीनों ने अपने-अपने अंश से उनका पुत्र बनने का बचन दिया। कालान्तर में इन तीनों ने अनुसूया के गर्भ से जन्म लिया जिनमें विष्णु के अंश से भगवान् दत्तात्रेय का जन्म हुआ।
दत्तात्रेय जी की गुण ग्राहकता–दत्तात्रेय जी भगवान् विष्णु के अंशावतार होने से वे जन्म से ही सिद्ध थे।भगवान द्वत्तात्रेय का अवतार, उनकी गुण ग्राहकता तीब्र व दृष्टि पैनी थी कि वे सृष्टि के कण-कण में कोई न कोई गुण ढूँढ लेते थे। भारत ने गुरु को सर्वाधिक महत्त्व दिया है तथा उसे ईश्वर से भी ऊँचा स्थान दिया है जो ईश्वर का ज्ञान कराता है। सांसारिक ज्ञान के लिए भी गुरुकी आवश्यकता होती है.
आध्यात्मिक ज्ञान के लिए तो उसकी अनिवार्यता ही है। कहा गया है कि गुरु के बिना ज्ञान नहीं होता। ‘“यह ज्ञान ही आत्म-ज्ञान है जो मुक्ति का एकमात्र साधन है। आत्म-ज्ञान एक अनुभूति है जो बिना गुरु के सम्भव नहीं है। भगवान् शिव ने “गुरु गीता’ में गुरु के महत्त्व को अति विस्तार से वर्णित किया है । भारत में जिन-जिनको आत्मानुभूति हुई है वह किसी गुरु के द्वारा ही हुई है।”’
किन्तु जहाँ गुण ग्राहकता हो, ज्ञान प्राप्ति की उत्कट इच्छा हो, पूर्ण संकल्प हो, पूर्वजन्मों के संस्कार उदित हो गए हों वह बिना गुरु के भी आत्मानुभूति कर सकता है । दत्तात्रेय जी कहते हैं कि वास्तविक गुरु तो स्वयं की आत्मा ही है। जिसे आत्मचेतना का अनुभव हो गया वह स्वयं अपना गुरु बन जाता है।
उसे किसी अन्य गुरु की आवश्यकता नहीं रहती । यदि ज्ञान प्राप्ति की जिज्ञासा हो तो सृष्टि के कण-कण से वह शिक्षा प्राप्त कर सकता है। यह पृथ्वी ज्ञान, अग्नि, वायु, आकाश, वनस्पति, जीव, जन्तु व पशु-पक्षी आदि सभी से वह शिक्षा ग्रहण कर सकता है। किन्तु भोग एवं स्वार्थवृत्ति में लिप्त मनुष्य इन गुणों को ग्रहण नहीं कर सकता। इसके लिएवैराग्य भावना आवश्यक है। दत्तात्रेय जी ऐसे ही व्यक्ति थे जिन्होंने शृष्टि के हर वर्ग से शिक्षा प्राप्त करके सिद्ध अवस्था को प्राप्त हुए थे.
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