gita quotes अवधूत गीता part-1

pathgyan.com पर आप लोगों का स्वागत है,gita quotes अवधूत गीता part-1, भगवान दत्तात्रये जी का उपदेश।

gita quotes अवधूत गीता part-1

 

gita quotes अवधूत गीता part-1

महान भय से रक्षा करने वाली अद्वैत का ज्ञान मनुष्यों में ईश्वर की कृपा से ही उत्पन्न होता है.

यह संपूर्ण जगत जो दिखाई दे रहा है वह ईश्वरीय आत्मा ही है इसलिए उस निराकार ब्रह्मा का में किस प्रकार वंदन करूं, जो कल्याण का स्वरूप है.

यह संसार 5 भूतों का समुदाय है, पांच तत्व का बना हुआ, यह संसार सपने के समान एक मिथ्या है, और आत्मा सभी प्रकार से मुक्त और निर्दोष है अतः मैं आत्मा किस को नमस्कार करूं।

यह आत्मा सर्व व्यापक रूप है तथा अकेली है, यह है कि नहीं यह किस प्रकार का है यह आश्चर्य प्रतीत होता है.

वेदांत का जो सार है वही हमारा सर्वस्व है और वही ज्ञान एवं विज्ञान है, मैं आत्मा हूं निराकार हूं तथा स्वभाव से ही सर्वव्यापी हूं

जो आकाश के सम्मान में स्वभाव से निर्मल एवं शुद्ध है वह मैं ही हूं इसमें संशय नहीं

मैं नाश रहीत एवं शुद्ध विज्ञान स्वरूप हूं तथा में दुख और सुख को नहीं जानता है कि यह किस को और किस प्रकार होते हैं

मन के द्वारा और शरीर के द्वारा किए गए कोई भी शुभ कर्म या अशुभ कर्म मेरे नहीं है मैं शुद्ध ज्ञान से युक्त एवं इंद्रियों से परे हूं

निश्चय ही या मन भटकाने वाला है तथा यहां सभी प्रकार से सभी ओर भागने वाला है मन के पार कुछ भी नहीं मन ही सब कुछ है किंतु यह मन भी सत्य नहीं है यह मन भी एक माया ही है जो जीवात्मा को भटकाता है.

मैं स्वयं ही आत्मस्वरूप होने के कारण एक ही सर्वस्व हूं आकाश से भी परे निरंतर हूं

जीवात्मा क्यों नहीं जानता कि तू एक ही है, नाश रहीत है, सदा प्रकाशमान अखंड है, फिर दिन को दिन और रात्रि को रात्रि किस प्रकार कहा जाए, क्योंकि सब एक भ्रम है.

ज्ञानी में ध्यान और जिसको ध्यान किया जाता है उसका भेद समाप्त हो जाता है क्योंकि वह सर्वत्र आत्मा को ही देखता है, क्योंकि जब सर्वत्र एक ही आत्मा है तो वह किसका ध्यान करेगा क्योंकि वह स्वयं भी एक आत्मा ही है.

आत्मा ना जन्म लेती है ना मरती है ना हीं इसका कोई शरीर है, यह सब ब्रह्म है.

आंखों में माया का पर्दा के कारण ही धरती में सभी जीवो को ब्रह्म का ज्ञान नहीं हो पाता

जिसे ज्ञान हो गया, वह तेरा और मेरा अलग-अलग नहीं देखता, क्योंकि वह जान जाता है कि सारा जगत एक आत्मा ही है

शब्द स्पर्श रूप रस और गंध यह जीवात्मा के लिए नहीं है और ना ही उस को संतुष्ट कर सकते हैं यह मात्र एक माया है

जन्म और मृत्यु रूपी जो बंधन दिखाई देता है वह सब मन के कारण दिखाई देता है मन के परे ऐसा कुछ भी नहीं है मन के परे केवल मोक्ष है तो इस संसार में आकर तुम क्यों रोते हो

मन का जो धर्म है, वह संसार में पडना चाहता है, और उसी को सुख मानता है, मन को अपनी आत्मा से अलग देखकर इन सुखों के लिए दुखी होना छोड़कर सुखी हो जा

तुम आत्मस्वरूप दुखों से रहित हो मोक्ष के स्वरूप हो जितने भी विकार आदि है वह सब आत्मा की नहीं है, इसीलिए कामवासना में पड़कर क्यों अपने को दुखी करते हो

आत्मा एवं ब्रह्मा दोनों ही एक हैं, केवल मन की चंचलता के कारण अलग-अलग दिखाई देते हैं

जो भी जगत  दिखाई देती है, वह मिथ्या है, क्योंकि संसार परिवर्तनशील है केवल एक आत्मा ही स्थिर है

जो दुनिया भर के विषय वासना और इच्छा से ऊपर उठ जाता है उसी को ब्रह्म की प्राप्ति होती है

समाधि प्राप्त करने के लिए दुखी होने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि आत्मा मुक्त स्वरूप है तो इसे समाधि की क्या आवश्यकता, मन के बंधन छूटने से सब चीज प्राप्त हो जाता है

तुम आत्मा ही हो और कहते हो मैं आत्मा को नहीं जानता, यह केवल मन के भ्रम के कारण है.

संसार में जितने भी आत्मा है वह सब तुम ही हो इसलिए मेरा कोई नहीं तेरा कोई नहीं सब कुछ एक ही है, तब किस और किसे प्राप्त करने के लिए ध्यान करोगे

जब शिव को नहीं जानते तो उसका वर्णन कैसे करोगे, आत्मा स्वयं शिव का स्वरूप है जो उन्हीं के समान है.

आत्मा कोई भौतिक, तत्व के बंधन में नहीं है

ज्ञान होने पर, आत्मा के एक रूप मालूम चलने पर हिंसा कार्य और अहिंसा कार्य सभी एक ही दिखते हैं, क्योंकि तब माया का ब्रह्म ज्ञात हो जाता है

मन की शुद्धता बहुत जरूरी है, क्योंकि इसी से जीवात्मा और आत्मा का एक रूप होने का ज्ञान हो पाता है

जब ज्ञान होता है, तब यह संसार शुन्य दिखाई देता है और केवल सर्वत्र अपनी ही आत्मा दिखाई देती है

जो ज्ञान की अंतिम अवस्था में पहुंच जाता है उसे केवल एक भ्रम ही सत्य स्वरुप दिखाई देता है और सारा जगत शुन्य प्रतीत होता है सभी लोक सभी देवता आदि

जीवात्मा में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष ऐसा कुछ भी नहीं, यह जीवात्मा अद्वैत है

ज्ञान होने पर साकार मिटकर केवल निराकार का बोध रहता है.

जैसे ही ज्ञान होता है संपूर्ण जगत मिथ्या प्रतीत होती है.

 

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