कबीर के दोहे सम्पूर्ण 54000 शब्दों में Part-7

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कबीर के दोहे सम्पूर्ण 54000 शब्दों में Part-7

 

                  कविता संग्रह-कबीर के दोहे सम्पूर्ण 54000 शब्दों में

टट्टा बिकट घाट घाट माही। खोलि कपाट महल किन जाही॥

देखि अटल टलि कतहि न जावा। रहै लपटि घट परचौ पावा॥

ठट्ठा इहै दूरि ठग नीरा। नीठि नीठि मन कीया धीरा॥

जिन ठग ठग्या सकल जग खावा। सो ठग ठग्या ठौर मन आवा॥

डड्डा डर उपजै डर जाई। ता डर महि डर रह्या समाई॥

जौ डर डरै तौ फिरि डर लागै। निडर हुआ डर उर होइ भागै॥

ढढ्ढा ढि ढूँढहिं कत आना। ढूँढ़त ही ढहि गये पराना॥

चढ़ि सुमेर ढूँढ़ि जब आवा। जिह गढ़ गढ्यो सुगढ़ महि पावा॥

णण्णा रणि रूतौ नर नेही करै। नानि बैना फुनि संचरै॥

धन्य जनम ताही को गणै। मारे एकहि तजि जाइ घणै॥

तत्ता अतर तरो नइ जाई। तन त्रिभुवन मैं रह्यो समाई॥

जौ त्रिभुवन तन माहि समावा। तौ ततहि तत मिल्या सचु पावा॥

थथ्था अथाह थाह नहीं पावा। ओहु अथाह इहु थिर न रहावा॥

थोड़े थल थानक आरंभै। बिनु ही थाहर मंदिर थंभै॥

दद्दा देखि जु बिनसन हारा। जस अदेखि तस राखि बिचारा॥

दसवै द्वार कुंजी जब दीजै। तौ दयाल कौ दर्सन कीजै॥

धद्धा अर्द्धहि अर्द्ध निबेरा। अद्धहि उर्द्धह मंझि बसेरा॥

अर्द्धह छाड़ि अर्द्ध जो आवा। तो अर्द्धहि उर्द्ध मिल्या सुख पावा॥

नन्ना निसि दिन निरखत जाई। निरख नयन रहे रतवाई॥

निरखत निरखत जब जाइ पावा। तब ले निरखहिं निरख मिलावा॥

पप्पा अपर पार नहीं पावा। परम ज्योति स्यो परचौ लावा॥

पाँचो इंद्री निग्रह करई। पाप पुण्य दोऊ निरबरई॥

फफ्फा बिनु फूलै फल होई। ता फल फंक लखै जो कोई॥

दूणि न परई फंक बिचारै। ता फल फंक सबै नर फारै॥

बब्बा बिंदहि बिंद मिलावा। बिंदहि बिंद न बिछुरन पावा॥

बंदौ होइ बंदगी गहै। बंधक होइ बंधु सुधि लहै॥

भभ्भा भेदहि भेद मिलावा। अब भौ भांति भरौसौ आवा॥

जो बाहर सो भीतर जान्या। भया भेद भूपति पहिचाना॥

मम्मा मूल रह्या मन मानै। मर्मी हो सो मन कौ जानै॥

मत कोइ मन मिलना बिलमावै। मगन भया तेसो सचु पावै॥

 

मम्मा मन स्यो काजु है मन साधै सिधि होइ॥

मनही मन स्यो कहै कबीरा मनसा मिल्या न कोइ॥

 

हुई मन सकती इहु मन सीउ। इहु मन मंच तत्व को जीउ।

इहु मन ले जौ उनमनि रहै। तौ तीनि लोक की बातै कहै॥

 

यय्या जौ जानहि तौ दुर्मति हनि बसि काया गाउ।

रणि रूतौ भाजै तहीं सूर उधारौ नाउ॥

 

रारा रस निरस्स करि जान्या। होइ निरस्स सुरस पहिचान्या।

इह रस छोड़े उह रस आवा। उह रस पीया इह रस नहीं भावा।

लल्ला ऐसे लिव मन लावै। अनत त जाइ परम सचु पावै॥

अरु जौ तहा प्रेम लिव लावै। तौ अलह लहै लहि चरन समावै।

ववा बार बार बिष्णु समारि। बिष्णु समारि न आवै हारि॥

बलि बलि जे बिष्णु तना जस गावै। बिष्णु मिलै सबही सचु पावै॥

 

वावा वाही जानियै वा जाने इहु होइ।

इहु अरु ओहु जब मिलै तब मिलत न जानै कोइ॥

 

शश्शा सो नीका करि सोधहु। घट परचा की बात निरोधहु॥

घट परचै जो उपजै भाउ। पूरि रह्या तह त्रिभुवन राउ॥

षष्षा खोजि परै जो कोई। जो खोजै सो बहुरि न होई॥

खोजि बूझि जो करै बिचारा। तौ भवजल तरत न लावै बारा॥

सस्सा सो सह सेज सवारै। सोई सही संदेह निवारै॥

अल्प सुख छाड़ि परम सुख पावा। तब इह त्रिय ओहु कंत कहावा॥

हाहा होत होइ नहीं जाना। जबही होइ तबहि मन माना॥

है तो सही लखौ जो कोई। तब ओही उह एहु एहु न होई॥

लिउँ लिउँ करत फिरै सब लोग। ता कारण ब्यापै बहु सोग॥

लक्ष्मीबर स्यो जौ लिव लागै। सोग मिटै सब ही सुख पावै॥

खख्खा खिरत खपत गये केते। खिरत खपत अजहूँ नहिं चेते॥

अब जग जानि जो मना रहै। जह का बिछुरा तहँ थिरु लहै॥

बावन अक्खर जोरे आन। सकया म अक्खरु एक पछानि॥

सत का सबद कबीरा कहै। पंडित होइ सो अनभै रहै॥

पंडित लोगह कौ ब्यवहार। दानवंत कौ तत्व बिचार॥

जाकै जीय जैसी बुधि होई। कहि कबीर जानैगा सोई॥

 

बिंदु ते जिन पिंड किया अगनि कुछ रहाइया।

दस मास माता उदरि राख्या बहुरि लागी माइया॥

प्रानी काहै को लोभि लागै रतन जनम खोया।

पूरब जनम करम भूमि बीजु नाहीं बायो॥

बारिक ते बिरध भया होना सो हाया।

जा जम आइ झोट पकरै तबहि काहे रोया॥

जीवन की आसा करै जम निहारै सासा।

बाजीगरी संसार कबीरा चेति ढालि पासा॥

 

बुत पूजि हिंदू मुये तुरक मूये सिर नाई।

ओइ ले जारे ओइ ले गाड़े तेरौ गति दुहूँ न पाई।

मन रे संसार अंध गहेरा। चहुँ दिसि पसरो है जम जेवरा॥

कबित पढ़े पढ़ि कविता मूये पकड़ के दारै जाई।

जटा धारि धारि जोगी मूये मेरी गति इनहि न पाई॥

द्रव्य संचि संचि राजे मूये गड़िले कंचन भारी।

बेद पढ़े पढ़े पंडित मूये रूप देखि देखि नारी॥

राम नाम बिन सबै बिगूते देखहु निरखि सरीरा।

हरि के नाम बिन किन गति पाई कहि उपदेस कबीरा॥

 

भुजा बाँधि मिला करि डारौं। हस्ती कोपि मूँड महि मारो।

हस्ती भगि के चीसा मारै। या मूरति कै हौ बलिहारै॥

आहि मेरे ठाकुर तुमरा जोर। काजी बकिबो हस्ती तोर।

हस्त न तोरै धरै ध्यान। वाकै रिदै बसै भगवान॥

क्या अपराध संत है कीना। बाँधि पाट कुंजर को दीना॥

कुंजर पोटलै लै नमस्कारै। बूझी नहीं काजी अंलियारै॥

तीन बार पतिया भरि लीना। मन कठोर अजहू न पतीना॥

कहि कबीर हमारा गोबिंद। चौथे पद महि जन की जिंद॥

 

भूखे भगति न कीजै। यह माला अपनी लीजै।

हौं माँगो संतन रेना। मैं नाहीं किसी का देना॥

माधव कैसी बने तुम संगै। आपि न देउ तले बहु मंगे॥

दुइ सेर माँगौ चूना। पाव घीउ संग लूना।

अधसेर माँगौ दाले। मोको दोनों बखत जिवालै।

खाट माँगौ चौपाई। सिरहाना और तुलाई॥

ऊपर कौ माँगौ खींधा। तेरी भगति करै जनु बींधा॥

मैं नाहीं कीता लब्बो। इक नाउ तेरा मैं फब्बो॥

कहि कबीर मन मान्या। मन मान्या तो हरि जान्या॥

      

मन करि मक्का किबला करि देही। बोलनहार परस गुरु एही।

कह रे मुल्ला बाँग निवाज। एक मसीति दसै दरवाज॥

मिसभिलि तामसु भर्म क दूरी। भाखि ले पंचे होइ सबूरी॥

हिंदू तुरक का साहिब एक। कह करै मुल्ला कह करै सेख॥

कहि कबीर हो भया दिवाना। मुसि मुसि मनुआ सहजि समाना॥

 

मन का स्वभाव मनहिं बियापी। मनहि मार कवन सिधि थापी।

कवन सु मनि जो मन को मारै। मन को मारि कबहुँ किस तारै॥

मन अंतर बोलै सब कोई। मन मारै बिन भगत न होई।

कबु कबीर जो जानै भेउ। मन मधुसूदन त्रिभुवन देउ॥

 

मन रे छाड़हु मर्म प्रगट होई नाचहु या माया के डाड़े।

सूर कि सनमुख रन ते डरपै सती की साँचे भाँड़े॥

डगमग छाँड़ि रे मन बौरा।

अब तो जरै मरै सिधि पाइये लीनो हाथ सिधोरा।

काम क्रोध माया के लीने या बिधि जगत बिगूचा॥

कहि कबीर राजा राम न छोड़ौ सगल ऊँच ते ऊँचा॥

 

माता जूठी पिता भी जूठा जूठा फल लागे॥

आवहि जूठे जाहि भी जूठे जूठे मरहि अभागे॥

कबु पंडित सूचा कवन ठाउ। जहाँ बैसि हौ भोजन खाउ।

जिहवा जूठी बोलन जूठा करन नेत्रा सब जूठे।

इंद्री की जूठी उतरसि नाहि ब्रह्म अगनि के जूठे॥

अगनि भी जूठी पानी जूठा जूठी बैसि पकाइया।

जूठी करछी परोसन लागा जूठे ही बैठि खाइया॥

गोबर जूठा चौका जूठा जूठी दीनों कारा॥

कहि कबीर तेई नर सूचे साची परी बिचारा॥

 

मरन जीवन की संका नासी। आपन रंगि सहज परगासी॥

प्रकटी ज्योति मिट्या अँधियारा। राम रतन पाया करता बिचारा॥

जहँ अनंद दुख दूर पयाना। मन मानुक लिव तत्तु लुकाना॥

जौ किछु होआ सू तेरा भाणा। जौ इन बूझे सु सहजि समाणा॥

कहत कबीर किलबिष गये खीणा। मन माया जग जीवन लीणा॥

 

कविता संग्रह-2

 

माई मोहि अवरु न जान्यो आनाँ।

सिव सनकादिक जासु गुन गावहि तासु बसहि मेरे प्रानाँ।

हिरदै प्रगास ज्ञान गुरु गम्मित गगन मंडल महि ध्यानाँ॥

बिषय रोग भव बंधन भागे मन निज घर सुख जानाँ॥

एक सुमति रति जानि मानि प्रभु दूसर मनहि न आना।

चंदन बास भये मन बास न त्यागि घट्यो अभिमानाँ॥

जो जन गाइ ध्याइ जस ठाकुर तासु प्रभु है थानाँ॥

तिह बड़ भाग बस्यो मन जाके कर्म प्रधान मथानाँ॥

काटि सकति सिव सहज प्रगास्यौ एकै एक समानाँ॥

कहि कबीर गुरु भेटि महासुख भ्रमत रहे मन मानाँ॥

 

माथे तिलक हथि माला बाँना। लोगन राम खिलौना जानाँ॥

जौ हौं बौरा तौ राम तोरा। लोग मर्म कह कह जानै मोरा॥

तोरौ न पाती पूजौ न देवा। राम भगति बिन निहफल सेवा॥

सतिगुरु पूजौ सदा मनावौ। ऐसी सेव दरगह सुख पावौ॥

लोग कहै कबीर बौराना। कबीर का मर्म राम पहिचाना॥

 

माधव जल की प्यास न जाइ। जल महि अगनि उठी अधिकाइ॥

तू जलनिधि हौ जल का मीन। जल महि रहौ जलै बिन खीन॥

तू पिंजर हौ सुअटा तोर। जम मंजार कहा करे मोर॥

तू तरवर हौ पंखी आहि। मंदभागी तेरो दर्शन नाहि॥

 

मुंद्रा मोनि दया करि झोली पत्रा का करहु बिचारू रे॥

खिंथा इहु तन सीओ अपना नाम करो आधारू रे॥

ऐसा जोग कमावै जोगी जप तप संजम गुरु मुख भोगी॥

बुद्धि बिभूति चढ़ाओ अपनी सिंगी सुरति मिलाई॥

करि बैराग फिरौ तन नगर मन की किंगुरी बजाई॥

पंच तत्त्व लै हिरदै राखहु रहै निराल मताड़ी॥

कहत कबीर सुनहु रे संतहु धर्म दया करि बाढ़ी॥

 

मुसि मुसि रोवै कबीर की माई। ऐ बारिक कैसे जीवहि रघुराई।

तनना बुनना सब तज्या है कबीर। हरि का नाम लिखि लियो सरीर॥

जब लग तागा बाहउ बेही। तब लग बिसरै राम सनेही॥

ओछी मति मेरी जाति जुलाहा। हरि का नाम लह्यो मैं लाहा॥

कहत कबीर सुनहु मेरी माई। हमरा इनका दाता एक रघुराई॥

 

मेरी बहुरिया को धनिया नाउ। ले राख्यौ रामजनिया नाउ॥

इन मुंडिन मेरा घर धुधरावा। बिटवहि राम रमौआ लावा॥

कहत कबीर सुनहु मेरी माई। इन मुंडियन मेरी जाति गवाई॥

 

मैला ब्रह्म मैला इंदु। रबि मैला है मैला चंदु।

मैला मलता इहु संसार। इक हरि निर्मल जाका अंत न पार॥

मैला ब्रह्मंडा इक्कै ईस। मैले निसि बासुर दिन तीस॥

मैला मोती मैला हीरु। मैला पवन पावक अरु नीरु॥

मैले सिव संकरा महेस। मैले सिध साधिक अरु भेष॥

मैले जोगी जंगम जटा समेति। मैली काया हंस समेति॥

कहि कबीर ते जन परवान। निर्मल ते जो रामहि जान॥

 

मौलो धरती मौला आकास। घटि घटि मौलिया आतम प्रगास॥

राज राम मौलिया अनत भाइ। जब देखो तहँ रहा समाइ॥

दुतिया मौले चारि बेद। सिमृति मौली सिवउ कतेब॥

संकर मौल्यौ जोग ध्यान। कबीर को स्वामी सब समान॥

 

जम ते उलटि भये हैं राम। दुख बिनसे सुख कियो बिश्राम।

बेरी उलटि भये हैं मीता। साकल उलटि सुजन भये चीता॥

अब मोंहि सर्ब कुसल करि मान्या। सांति भई जब गोबिंद जान्या॥

तन महि होती कोटि उपाधि। उलटि भई सुख सहजि समाधि॥

आप पछानै आपै आप। रोग न ब्यापै तीनों ताप॥

अब मन उलटि सनातन हूआ। तब जान्या जब जीयत मूआ॥

कहु कबीर सुख सहज समाओ। आपि न डरो न अवर डराओ॥

 

जोगी कहहिं जोग भल मीठी अवर न दूजा भाई।

रुंडित मुंडित एकै सबदी एकहहि सिधि पाई।

हरि बिन भरमि भूलानै अंधा।

जा पहि जाउ आप छुटकावनि ते बाँधे बहु फंदा।

जह ते उपजी तही समानी इहि बिधि बिसरी तबही॥

पंडित गुणी सूर हम दाते एहि कहहिं बड़ हमही।

जिसहि बुझाए सोई बूझै बिनु बूझैं क्यों रहिये॥

तिस गुरु मिलै अंधेरा चूके इन बिधि प्राण कु लहियै।

तजिवा बेदा हने बिकारा हरि पद दृढ़ करि रहियै॥

कह कबीर गूँगैं गुण खाया पूछे ते क्या कहियै॥

 

जोगी जती तपी सन्यासी बहु तीरथ भ्रमना।

लुंजि मुंजित मौनि जटा धरि अंत तऊ मरना॥

ताते सेविए ले रामना।

रसना राम नाम हितु जाकै कहा करे जमना।

आगम निगम जोतिक जानहि बहु वह ब्याकरना।

तंत्रा मंत्रा सब औषध जानहि अंत तऊ मरना।

राजा भोग अरु छत्रा सिंहासन बहु सुंदरि रमना॥

पान कपूर सुबासक चंदन अंत तऊ मरना॥

बेद पुरान सिमृति सब खोजे कहूँ न ऊबरना।

कहु कबीर यों रामहिं जपौं मेटि जनम मरना॥

 

जोनि छाड़ि जौ जग महि आयो। लागत पवन खसम बिसरायो।

जियरा हरि के गुन गाउ।

गर्भ जोनि महि ऊर्ध्व तपु करता। तौं जठर अग्नि महि रहता।

लख चौरासहिं जोनि भ्रमि आयो। अब के छुटके ठौर न ठायो॥

कहु कबीर भजु सारंगपानी। आवत दीसै जात न जानी॥

 

रहु रहु री बहुरिया घूँघट जिनि काढ़ै। अंत की बान लहैगी न आढ़ै।

घूँघट काढ़ि गई तेरो आगै। उनकी गैल तोहिं जिनि लागै॥

घूँघट काढ़ि की इहै बड़ाई। दिन दस पांच बहु भले आई॥

घूँघट तेरी तौपरि सांचै। हरि गुन गाइ कूदहिं अरु नाचै॥

कहत कबीर बहू तब जीतै। हरि गुन गावत जनम ब्यतीतैं॥

 

राखि लेहु हमते बिगरी।

सील धरम जप भगति न कीनी हौ अभिमन टेढ़ पगरी।

अमर जानि संची इह काया इह मिथ्या काची गगरी॥

जिनहि निवाजि साजि हम कीये तिनही बिसारि औ लगरी।

संधि कोहि साध नहीं कहियौ सरनि परे तुमरी पगरी।

कह कबीर इहि बिनती सुनियहु मत घालहु जम की खबरी॥

 

राजन कौन तुमारे आवै।

ऐसा भाव बिनुर को देख्यो ओहु गरीब केहि भावै।

हस्ती देखि भर्म ते भूला री भगवान न जान्या॥

तुमरी दूध बिदुर को पानी अमृत करि मैं मान्या॥

खीर समान सागु मैं पाया गुन गावत रैनि बिहानी॥

कबीर को ठाकुर अनद बिनोदी जाति न काहूँ की मानी॥

 

राजा राम तू ऐसा निर्भव तरन तारन राम राया।

जब हम होते तब तुम नाही अब तुम हहु हम नाही।

अब हम तुुुम एक भये इहि एकै देखति मन पतियाही।

जब बुधि होती तब बल कैसा अब बुद्धि बल न खटाई॥

कही कबीर बुधि हरि लई मेरी बुद्धि बदली सिधि पाई॥

 

राजा राम òिमामति नहीं जानी तोरी। तेरे संतन की हौ चेरी।

हसतो जाइ सु रोवत आवै रोवत जाइ सु हँसै॥

बसतो होइ सो ऊजरु उजरु होइ सु बसै।

जल ते थल करि थल ते कूआ कूप ते मेरु करावें।

धरती ते आकास चढ़ावै चढ़े अकास गिरावै॥

भेख़ारी ते राज करावै राजा ते भेखारी।

खल मूरख ते पंडित करिबो पंडित ते मगधारी॥

नारी ते जे पुरुख करावै पुरखन ते जो नारी॥

कहुँ कबीर साधू का प्रीतम सुमूरति बलिहारी॥

 

राम जपो जिय ऐसे ऐसे। धुव प्रह्लाद जंप्यो हरि जैसे।

दीनदयाल भरोसे तेरे। सब परवार चढ़ाया बेड़े॥

जाति सुभावै ताहु कम मनावै। इस बेड़े कौ पार लंथावै॥

गुरु प्रसादि ऐसी बुद्धि समानी। चूँकि गई फिरि आवन जानी।

कहु कबीर भजु सारिंगपानी। उरबार पार सब एको दानी।॥

 

राम सिमरि राम सिमरि राम सिमिरि भाई।

राम नाम सिमिरन बिनु बूड़ते अधिकाई॥

बनिता सुत देह ग्रेह संपति सुखदाई।

इनमें कछु नाहिं तेरो काल अवधि आई॥

अजामल गज गनिका पतित कर्म कीने।

तेऊ उतरि पार परे राम नाम लीने।

सूकर कूकर जोनि भ्रमतेऊ लाज न आई।

राम नाम छाड़ि अमृत काहे बिष खाई॥

तजि भर्म कर्म बिधि निषेध राम नाम लेही।

गुरु प्रसाद जन कबीर राम करि सनेही॥

 

री कलवारि गवारि मूढ़ मति उलटी पवन फिरावो।

मन मतवार मेर सर भाठी अमृत धार चुवावौ॥

बोलहु भैया राम की दुहाई।

पीवहु सत सदा मति दुर्लभ सहजे प्यास बुझाई।

भय बिच भाउ भाई कोउ बूझहिं हरि रस पावै भाई।

जेते घट अमृत सबही महि भावै तिसहि पियाई॥

नगरी एकै नव दरवाजै धारत बर्जि रहाई।

त्रिकुटी छूटै दस बादर खूलै ताम न खींवा भाई।

अभय पद पूरि ताप तह नासे कहि कबीर बीचारी॥

उबट चलते इहु मद पाया जैसे खोद खुमारी॥

 

रे जिय निलज्ज लाज तोहि नाहीं। हरि तजि कत काहू के जाही।

जाको ठाकुर ऊँचा होई। सो जन पर घर जात न सोही॥

सो साहिब रहिया भरपूरि। सदा संगि नाहीं हरि दूरि॥

कवला चरन सरन है जाके। कहू जन का नाहीं घर ताके।

सब कोउ कहै जासु की बाता। जी सम्भ्रथ निज पति है दाता॥

कहै कबीर पूरन जग सोई। जाकै हिरदै अवरु न होई॥

 

रे मन तेरा कोइ नहीं खिचि लेइ जिन भार।

बिरख बसेरा पंखि कर तैसो इहु संसार॥

राम रस पीया रे जिह रस बिसरि गये रस और।

और मुये क्या रोइये जा आपा थिर न रहाइ॥

जा उपजै सो बिनसिहे दुख करि रोवै बलाइ।

जह की उपजी तह़ रची पीवतु मरद न लाग॥

कह कबीर चित चेतिया राम सिमिर बैराग॥

 

रोजा धरै मनावै अल्लहु स्वादति जीय सँघारै।

आपा देखि अवर नहीं देखै काहे कौ झख मारै॥

काजी साहिब एक तोही महि तेरा सोच बिचार न देखै।

खबरि न करहिं दीन के बौरे ताते जनम अलेखै॥

साँच कतेब बखनै अल्लहु नारि पुरुष नहिं कोई।

पढ़ै गुनै नाहीं कछू बौरे जो दिल महि खबरि न होई॥

अल्लहु गैव सगल घट भीतर हिरदै लेहु बिचारी।

हिंदू तुरक दुइ महि एकै कहै कबीर पुकारी॥

 

लंका सा कोट समुद्र सी खाई। तिह रावन घर खबरि न पाई।

क्या माँगै किछू थिरु न रहाई। देखत नयन चल्यो जग जाई॥

इक लख पूत सवा लख नाती। तिह रावन घर दिया न बाती॥

चंद सूर जाके तपत रसोई। बैसंतर जाके कपरे धोई॥

गुरुमति रामै नाम बसाई। अस्थिर रहै कतहू जाई॥

कहत कबीर सुनहु रे लोई राम नाम बिन मुकुति न होई॥

 

लख चौरासी जीअ जोनि महि भ्रमन नंदुबहु थाको रे।

लगति हेतु अवतार लियो है भाग बड़ी बपुरा को रे॥

तुम जो कहत हौ नंद को नंदन नंद सु नंदन काको रे॥

धरनि अकास दसों दिसि नाहींे तब इहु नंद कहायो रे॥

संकट नहीं परै जोनि नहिं आवै नाम निरंजन जाको रे।

कबीर को स्वामी ऐसो ठाकुर जाकै माई न बापो रे॥

 

विद्या न पढ़ो वाद नहीं जानो। हरि गुन गथत सुनत बैरानो।

मेरे बाबा मैं बौरा, सब खलक सयानो, मैं बौरा॥

मैं बिगरो बिगरै मति औरा। आपन बौरा राम कियौ बौरा॥

सतिगुरु जारि गयो भ्रम मोरा॥

मैं बिगरे अपनी मति खोई। मेरे भर्मि भूलो मति कोई।

सो बौरा आपु न पछानै। आप पछानै त एकै जानै॥

अबहिं न माता सु कबहुँन भाता। कहि कबीर रामै रंगि राता॥

 

बिनु तत सती होई कैसे नारि। पंडित देखहु रिदे बिचारि॥

प्रीति बिना कैसे बँधे सनेहू। जब लग रस तब लग नहिं नेहू॥

साह निसत्तु करै जिय अपनै। सो रमय्यै कौ मिलै न स्वपने॥

तन मन धन गृह सौपि सरीरू। सोई सोहागनि कहै कबीरू॥

 

बिमल अस्त्रा केते है पहिरे क्या बन मध्ये बासा॥

कहा भया नर देवा धोखे क्या जल बौरो गाता॥

जीय रे जाहिगा मैं जाना अविगत समझ इयाना।

जत जत देखौ बहुरि न पेखौ संग माया लपटना॥

ज्ञानी ध्वानी बहु उपदेसी इहु जन सगली धंधा।

कहि कबीर इक राम नाम बिनु या जग माया अंधा॥

 

बिषया ब्यापा सकल संसारू। बिषया लै डूबा परवारू।

रे नर नाव चौंडि कत बोड़ी। हरि स्यो तोड़ि बिषया संगि जोड़ी॥

सुर नर दाधे लागी आगि। निकट नीर पसु पीवसि न झागि॥

चेतत चेतत निकस्यो नीर। सो जल निर्मल कथन कबीर॥

 

बद कतेब इकतरा भाई दिल का फिकर न जाई।

टुक दम करारी जौ करहु हाजिर हजूर खुदाई।

बंदे खोजु दिल हर रोज ना फिरि परेसाना माहि।

इह जु दुनिया सहरु मेला दस्तगीरी नाहि॥

दरोग पढ़ि पढ़ि सुखी होह बेखबर बाद बकाहिं।

हक सच्च खालक खलक म्याने स्याममूरति नाहि॥

असमान म्याने लहंग दरिया गुसल करद त बूंद।

करि फिकरु दाइम लाइ चसमें जहँ तहाँ मौजूद॥

अल्लाह पाक पाक हैं सक करो जे दूसर होइ।

कबीर कर्म करीम का उहु करे जानै सोइ॥

 

बेद कतेब कहहु मत झूठेइ झूठा जो न बिचारै।

जो सब मैं एकु खुदा कहत हौ तौ क्यों मुरगी मारै॥

मुल्ला कहहु नियाउ खुदाई तेरे मन का भरम न जाई।

पकरि जीउ आन्या देह बिनती माटी कौ बिसमिल किया॥

जोति सरूप अनाहत लागी कहु हलाला क्यों कीया॥

 

क्या उज्जू पाक किया मुह धोया क्या मसीति सिर लाया।

जौ दिले मैंहि कपट निवाजे छूजारहु क्या हज काबै जाया॥

तू नापाक पाक नहीं सूक्ष्या तिसका मरम न जान्या॥

 

बेद की पुत्री सिंमृति भाई। सांकल जबरी लैहै आई।

आपन नगर आप ते बाँध्या। मोह कै फाधि काल सरु साध्या॥

कटी न कटै तूटि नह जाई। सो सापनि होइ जग को खाई॥

हम देखत जिन्ह सब जग लूट्या। कहु कबीर मैं राम कहि छूट्या॥

 

बेद पुरान सबै मत सुनि के करी करम की आसा।

काल ग्रस्त सब लोग सियाने उठि पंडित पै चले निरासा॥

मन रे सरो न एकै काजा। भाज्यो न रघुपति राजा।

बन खंड जाइ जोग तप कीनो कंद मूल चुनि खाया।

नादी बेदी गबदी मौनी जम के परै लिखाया॥

भगति नारदी रिदै न आई काछि कूछि तन दीना।

राम रागनी डिंभ होइ बैठा उन हरि पहि क्या लीना॥

अरयो काल सबै जग ऊपर माहि लिखे भ्रम ज्ञानी।

कहु कबीर जन भये खलासे प्रेम भगति जिह जानी॥

 

षट नेम कर कोठड़ी बाँधी बस्तु अनूप बीच पाई॥

कुंजी कुलफ प्रान करि राखे करते बार न लाई॥

 

अब मन जागत रहु रे भाई।

गाफिल होय कै जनम गवायो चोर मुसै घर जाई।

पंच पहरुआ दर महि रहते तिनका नहीं पतियारा।

चेति सुचेत चित्त होइ रहूँ तौ लै परगासु उबारा॥

नव घर देखि जु कामिनि भूली बस्तु अनूप न पाई।

कहत कबीर नवै घर मूसे दसवें तत्व समाई॥

 

संत मिलै कछु सुनिये कहिये। मिलै असंत मष्ट करि रहियै।

बाबा बोलना कया कहियै। जैसे राम नाम रमि रहियै॥

संतन स्यों बोले उपकारी। मूरख स्यों बोले झक मारी॥

बोलत बोलत बढ़हिं बिकारा। बिनु बोले क्या करहिं बिचारा॥

कह कबीर छूछा घट बोलै। भरिया होइ सु कबहु न डोलै॥

 

संतहु मन पवनै सुख बनिया। किछु जोग परापति गनिया।

गुरु दिखलाई मोरी। जितु मिरग पड़त है चोरी॥

मूँदि लिये दरवाजै। बाजिले अनहद बाजे॥

कुंभ कमल जल भरिया। जलौ मेट्यो ऊमा करिया॥

कहु कबीर जन जान्या। जौ जान्या तौ मन मान्या॥

 

संता मानौ दूता डानौ इह कुटवारी मेरी॥

दिवस रैन तेरे पाउ पलोसो केस चवर करि फेरी॥

हम कूकर तेरे दरबारि। भौकाई आगे बदन पसारि॥

पूरब जनम हम तुम्हरे सेवक अब तौ मिट्या न जाई॥

तेरे द्वारे धनि सहज की मथै मेरे दगाई॥

दागे होहि सुरन महि जूझहि बिनु दागे भगि जाई॥

साधू होई सुभ गति पछानै हरि लये खजानै पाई॥

कोठरे महि कोठरी परम कोठरी बिचारि॥

गुरु दीनी बस्तु कबीर कौ लेवहु वस्तु सम्हारि॥

कबीर दोई संसार कौ लीनी जिसु मस्तक भाग॥

अमृत रस जिनु पाइया थिरता का सोहाग॥

 

संध्या प्रात स्नान कराही। स्यों भये दादुर पानी माहीं।

जो पै राम नाम रति नाहीं। ते सवि धर्मराय कै जाहीं॥

काया रति बहु रूप रचाहीं। तिनकै दया सुपनै भी नाहीं॥

चार चरण कहहि बहु आगर। साधु सुख पावहि कलि सागर॥

कहु कबीर बहु काय करीजै। सरबस छोड़ि महा रस पीजै॥

 

सत्तरि सै इसलारू है जाके। सवा लाख है कावर ताके॥

सेख जु कही यही कोटि अठासी। छप्पन कोटि जाके खेल खासी॥

सो गरीब की को गुजरावै। मजलसि दूरि महल को पावै॥

तेतसि करोडि है खेल खाना। चौरासी लख फिरै दिवाना॥

बाबा आदम कौ कछु न हरि दिखाई। उनभी भिस्त घनेरी पाई॥

दिल खल हलु जाकै जर दरुबानी। छोड़ि कतेब करै सैतानी॥

दुनिया दोस रोस है लोई। अपना कीया पावे सोई॥

तुम दाते हम सदा भिखारी। देउ जवाब होइ बजगारी॥

दास कबीर तेरी पनह समाना। भिस्त नजीक राखु रहमाना॥

 

सनक आनंद अंत नहीं पाया। बेद पढ़ै ब्रह्मै जनम गवाया।

हरि का विलोबना विलोबहु मेरे भाई। सहज विलोबहु जैसे तत्व जाई॥

तन करि मटकी मन माहि बिलोई। इसु मटकी महि सबद संजोई॥

हरि का बिलोना तन का बीचारा। गुरु प्रसाद पावै अमृत धारा॥

कहु कबीर न दर करे जे मीरा। राम नाम लगि उतरे तीरा॥

 

संत संगति राम रिदै बसाई।

हनुमान सरि गरुड़ समाना। सुरपति नरपति नहिं गुन जाना॥

चारि बेद अरु सिमृति पुराना। कमलापति कमल नहिं जाना॥

कह कबीर सो धरमैं नाहीं। पग लगि राम रहै सरनाहीं॥

 

सब कोई चलन कहत है ऊँहा। ना जानी बैकुठ है कहाँ॥

आप आपका मरम न जाना। बातन ही बैकुंठ बखानाँ॥

जब लग मन बैकुंठ की आस। तब लग नाही चरन निवास॥

खाई कोटि न परल पगारा। ना जानौ बैकुंठ दुआरा॥

कहि कबीर अब कहिये काहि। साधु संगति बैकुंठे आहि॥

 

सर्पनि ते ऊपर नहीं बलिया। जिन ब्रह्मा बिष्णु महादेव छलिया।

मारु मारु सर्पनी निर्मल जल पैठी। जिन त्रिभुवन डसिले गुरु प्रसाद डीठी॥

सर्पनी सर्पनी क्या कहहु भाई। जिन साचु पछान्या तिन सर्पनी खाई॥

सर्पनी ते आन छूछ नहीं अवरा। सर्पनी जीति कहा करै जमरा॥

इहि सर्पनी ताकी कीती होई। बल अबल क्या इसते होई॥

एह बसती ता बसत सरीरा। गुरु प्रसादि सहजि तरे कबीरा॥

 

सरीर सरोवर भीतरै आछै कमल अनूप।

परस ज्योति पुरुषोत्तमो जाकै रेख न रूप।

रे मन हरि भजु भ्रम तजहु जग जीवन राम॥

आवत कछू न दीसई न दीसै जात॥

जहाँ उपजै बिनसै तहि जैसे पुरवनि पात।

मिथ्या करि माया तजा सुख सहज बीचारि॥

कहि कबीर सेवा करहु मन मंझि मुरारि॥

 

सासु की दुखी ससुर की प्यारी जेठ के नाम डरौं रे।

सखी सहेली ननद गहेली देवर कै बिरहि जरौं रे॥

मेरी मति बौरी मैं राम बिसारो किन विधि रइनि रहौं रे॥

सेजै रमत नयन नहीं पेखौं इहु दुख कासौं कहौं रे॥

बाप सबका करै लराई मया सद मतवारी॥

बड़े भाई के जग संग होती तब ही नाह पियारी॥

कहत कबीर पंच को झगरा झगरत जनम गवाया॥

झूठी माया सब जग बाँध्या पै राम रमत सुख पाया॥

 

सिव की पुरी बस बुधि सारु। यह तुम मिलि कै करहु बिचार॥

ईत ऊत की सोझौ परै। कौन कर्म मेरा करि करि मरै॥

निज पद ऊपर लागौ ध्यान। राजा राम नाम मेरा ब्रह्म ज्ञान॥

मूल दुआरै बंध्या बंधु। रवि ऊपर गहि राख्या चंदु॥

पंचम द्वारे की सिल ओड़। तिह सिल ऊपर खिड़की और॥

खिड़की ऊपर दसवा द्वार। कहि कबीर ताका अंतु न पार॥

 

सुख माँगत दुख आगै आवै। सो सुख हमहुँ न माँग्या भावै॥

बिषगा अजहु सुरति सुख आसा। कैसे होइ है राजाराम निवासा॥

इसु सुख ते सिव ब्रह्म हराना। सो सुख हमहुँ साँच करि जाना॥

सनकादिक नारद मुनि सेखा। तिन भी तन महि मन नहीं पेखा॥

इस मन कौ कोई खोजहु भाई। तन छूटै मन कहा समाई॥

गुरु परसादी जयदेव नामा। भगति कै प्रेम इनहीं है जाना॥

इस मन कौ नहीं आवन जाना। जिसका भम गया तिन साचु पछाना॥

इस मन कौ रूप न रेख्या काई। हुकुमे होया हुकुम बूझि समाई॥

इस कन का कोई जानै भेउ। इहि मन लीण भये सुखदेउ॥

जींउ एक और सगल सरीरा। इस मन कौ रबि रहै कबीरा॥

 

सुत अवराध करल है जेते। जननी चीति न राखसि तेते॥

रामज्या हौं बारिक तेरा। काहे न खंडसि अवगुन मेरा॥

जे अति कोप करे करि धाया। ताभी चीत न राखसि माया॥

चित्त भवन मन परो हमारा। नाम बिना कैसे उतरसि पारा॥

देहि बिमल मति सदा सरीरा। सहजि सहजि गुन रवै कबीरा॥

 

सुन्न संध्या तेरी देव देवा करि अधपति आदि समाई।

सिद्ध समादि अंत नहीं पाया लागि रहे सरनाई॥

लेहु आरति हो पुरुष निरंजन सति गुरु पूजहु जाई॥

ठाढ़ा ब्रह्मा निगम बिचारै अलख न लखिया जाई॥

तत्तु तेल नाम कीया बाती दीपक देह उज्यारा॥

जोति लाई जगदीस जगाया बूझे बूझनहारा॥

पंचे सबद अनाहत बाजै संगे सारिंगपानी।

कबीरदास तेरी आरती कीनी निरंकार निरबानी॥

 

सुरति सिमृति दुई कन्नी मंदा परमिति बाहर खिंथा॥

सुन्न गुफा महि आसण बैसण कल्प विवर्जित पंथा॥

मेरे राजन मैं बैरागी जोगी मरत न साग बिजोरी॥

खंड ब्रह्मांड महि सिंडी मेरा बटुवा सब जग भसमाधारी।

ताड़ी लागी त्रिपल पलटिये छूटै होइ पसारी॥

मन पवन्न दुई तूंबा करिहै जुग जुग सारद साजी॥

थिरु भई नंती टूटसि नाहीं अनहद किंगुरी बाजी॥

सुनि मन मगन भये है पूरे माया डोलत लागी॥

कहु कबीर ताकौ पुनरपि जनम नहीं खेलि गयो बैरागी॥

 

सुरह की सैसा तेरी चाल। तेरा पूछट ऊपर झमक बाल॥

इस घर मह है सु तू ढुढ़ि खाहि। और किसही के तू मति ही जाहि॥

चाकी चाटै चून चाहि। चाकी का चीथरा कहा लै जाहि॥

छीके पर तेरी बहुत डीठ। मत लकरी सोंटा परै तेरी पीठ॥

कहि कबीर भोग भले कीन। मति कोऊ मारै ईट ठेम॥

 

सो मुल्ला जो मन स्यो लरै। गुरु उपदेश काल स्यो जुरै॥

काल पुरुष का मरदै मान। तिस मुल्ला को सदा सलाम॥

है हुजूर कत दूरि बतावहु। दुंदर बाधहु मुंदर पावहु॥

काजी सो जो काया बिचारै। काया की अग्नि ब्रह्म पै जारै॥

सुपनै बिंदु न देई जरना। तिस काजी कौ जरा न मरना॥

सो सुरतान जो दुइ सुर तानै। बाहर जाता भीतर आनै॥

गगन मंडल महि लस्कर करै। सो सुरतान छत्रा सिर धरै॥

जोगी गोरख गोरख करै। हिंदू राम नाम उच्चरै॥

मुसलमान का एक खुदाई। कबीर का स्वामी रह्या समाई॥

 

स्वर्ग वास न बाछियै डारियै न नरक निवासु।

होना है सो होइहै मनहि न कीजै आसु॥

रमय्या गुन गाइयै जाते पाइयै परम निधानु॥

क्या जप क्या तप संयमी क्या ब्रत क्या इस्नान॥

जब लग जुक्ति न जानिये भाव भक्ति भगवान॥

संपै देखि न हर्षियौ बिपति देखि न रोइ।

ज्यो संपै त्यों बिपत है बिधि ने रच्या सो होइ॥

कहि कबीर अब जानिया संतन रिदै मझारि॥

सेवक सो सेवा भले जिह घट बसै मुरारि॥

हज्ज हमारी गोमती तीर। जहाँ बसहि पीतंबर पीर॥

वाहु वाहु क्या खुद गावता है। हरि का नाम मेरे मन भावता है।

नारद सारद करहि खवासी। पास बैठि बिधि कवला दासी॥

कंठे माला जिह्वा नाम। सुहस नाम लै लै करो सलाम॥

कहत कबीर राम नाम गुन गावौ। हिंदु तुरक दोऊ समझावौ॥

 

हम घर सूत तनहि नित ताना कंठ जनेऊ तुमारे॥

तुम तो बेद पढ़हु गायत्री गोबिंद रिदै हमारे॥

मेरी जिह्ना विष्णु नयन नारायण हिरदै बसहि गोबिंदा॥

जम दुआर जब पूँछसि बबरे तब क्या कहसि मुकुंदा॥

हम गोरू तुम ग्वार गुसाइ जनम जनम रखवारे॥

कबहूँ न पार उतार चराइह कैसे खसम हमारे॥

तू बाम्हन मैं कासी का जुलाहा बूझहु मोर गियाना॥

तुम तौ पाचे भूपति राजे हरि सो मोर धियाना॥

 

हम मसकीन खुदाई बंदे तुम राचसु मन भावै।

अल्लह अबलि दीन को साहिब जोर नहीं फुरमावै॥

 

काजी बोल्या बनि नहीं आवै।

रोजा धरै निवाजु गुजारै कलमा भिस्त न होई।

सत्तरि काबा घर ही भीतर जे करि जानै कोई॥

निवाजु सोई जो न्याइ बिचारै कलमा अकलहि जानै॥

पाँचहु मुसि मुसला बिछावै तब तौ दीन पछानै॥

खसम पछानि तरस करि जीय महि मारि मणी करि फीकी॥

आप जनाइ और को जानै तब होई भिस्त सरीकी॥

माटी एक भेष धरि नाना तामहि ब्रह्म पछाना।

कहै कबीर भिस्त छोड़ि करि दोजक स्यों मनमाना॥

 

हरि बिन कौन सहाई मन का।

माता पिता भाई सुत बनिता हितु लागो सब फन का॥

आगै कौ किछु तुलहा बाँधहु क्या भरोसा धन का॥

कहा बिसासा इस भाँडे का इत नकु लगै ठनका॥

सगल धर्म पुन्न फल पावहु धूरि बाँछहु सब जन का॥

कहै कबीर सुनहु रे संतहु इहु मन उड़न पखेरू बन का॥

 

हरि जन सुनहि न हरि गुन गावहिं। बातन ही असमान गिरावहिं॥

ऐसे लोगन स्यों क्या कहिये।

जो प्रभु कीये भगति ते बाहज। तिनते सदा डराने रहिय॥

आपन देहि चुरू भरि पानी। तिहि निंदहि जिह गंगा आनी॥

बैठत उठत कुटिलता चालहिं। आप गये औरनहू घालहिं॥

छाड़ि कुचर्चा आन न जानहिं। ब्रह्माहू का कह्यो न मानहिं॥

आप गये औरनहू खोवहि। आगि लगाइ मंदिर में सोवहिं॥

औरन हँसत आप हहिं काने। तिनको देखि कबीर लजाने॥

 

हिंदू तुरक कहाँ ते आये किन एह राह चलाई।

दिल महि सोच बिचार कवादे भिस्त दोजक कित पाई॥

 

काजी तै कौन कतेब बखानी॥

पढ़त गुनत ऐसे सब मारे किनहू खबरू न जानी॥

सकति सनेह करि सुन्नति करियै मैं न बदौगा भाई॥

जौ रे खुदाई मोहि तुरक करैगा आपन ही कटि जाई॥

सुन्नत किये तुरक जे होइगा औरत का क्या करियै॥

अर्द्ध सरीरी नारि न छोड़े तातें हिंदू ही रहिये॥

छाड़ि कतेब राम भजु बौरे जुलम करत है भारी॥

कबीर पकरी टेक राम की तुरक रहे पचि हारी॥

 

हीरै हीरा बेधि पवन मन सहजे रह्या समाई।

सकल जोति इन हीरै बेधी सतिगुरु बचनी मैं पाई॥

हरि की कथा अनाहद बानी हंस ह्नै हीरा लेइ पछानी॥

कह कबीर हीरा अस देख्यो जग महि रह्या समाई॥

गुपता हीरा प्रकट भयो जब गुरु गम दिया दिखाई॥

 

हृदय कपट मुख ज्ञानी। झूठे कहा बिलोवसि पानी॥

काया मांजसि कौन गुना। जो घट भीतर है मलनाँ॥

लौकी अठ सठि तीरथ न्हाई। कौरापन तऊ न जाई॥

कहि कबीर बीचारी। भव सागर तारि मुरारी॥

 

कबीर के दोहे सम्पूर्ण 54000 शब्दों में Part-7

कबीर के दोहे सम्पूर्ण 54000 शब्दों में Part-6

कबीर के दोहे सम्पूर्ण 54000 शब्दों में Part-5

कबीर के दोहे सम्पूर्ण 54000 शब्दों में Part-4

कबीर के दोहे सम्पूर्ण 54000 शब्दों में Part-3

कबीर के दोहे सम्पूर्ण 54000 शब्दों में Part-2

कबीर के दोहे सम्पूर्ण 54000 शब्दों में Part-1

 

 

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